बुधवार, अप्रैल 18, 2007

मेरे हिस्से का...

सब कहते हैं मैं रिश्ते बनाना बहुत अच्छे से जानती हूँ, मैं रिश्तों को निभाने की बजाय जीने समझ यक़ीन करती हूँ. जिस रिश्ते की शुरुआत ख़ूबसूरती से हुई, जिसका आधार सच्चाई और विश्वास है वो रिश्ता आजीवन ख़ूबसूरत ही रहेगा. चंद लम्हों की कड़वाहट मेरे रिश्तों को कड़वा नही कर सकती हैं. कभी कभी कुछ ऐसे पल आते हैं जब लगता है सब कुछ खो गया है पर क्या वो अपनापान भी खो सकता है जो कभी उस रिश्ते मैं महसूस किया था? ऐसा ही मेरे साथ हुआ कुछ पलों के लिए लगा मेरे नीचे की ज़मीन और माथे के उपर का आसमान ही मुझसे छीन गया है पर जब सोचने बैठी ख़ुद को टटोला तो पाया कहीं उस रिश्ते की टूटती साँसों मे धड़कन बाक़ी है, जिसे मैं जीवन का अंधेरा समझ रही हूँ वहाँ रोशनी की किरण आज भी शेष है, दिल और दिमाग़ मे जो चल रहा है उसको रोकना मुश्किल है बहुत.....पर जब कहीं इस उलझनों के, अकेलेपन के दौर (जिसका साझी कोई और है) के साथ मेरे निर्णयो का दौर साथ साथ चलना चाहिए. क्यूं ज़िंदगी मे जो सब हो वो किसी और का दिया ही हो कहीं कुछ तो अपने हिस्से का भी हो. आज दिल और दिमाग़ दोनो से यही चाहती हूँ जो सच था वो शेष रहे, जो झूठ सच का रूप लेकर सामने आया वो खो जाए हमेशा के लिए. मुझे मेरे हिस्से का प्यार, विश्वास, आत्मीयता और अपनापान मिले किसी की दया ना मिले. मेरे हिस्से की धूप मिले, छाँव, पत्तझड़, ग्रीष्म, शीत सब मिले पर उधर की बसंत ऋतू ना मिले. मेरे हिस्से का दर्द, दुख, तकलीफे सब मुझे स्वीकार हैं पर दिखावे की शनिक ख़ुशियाँ मुझसे दूर रहें. मेरे अकेलेपन, मेरी उदासी का सबब जान कोई मेरा संबल ना बने. मेरे अहसास, मेरे भावनाओ पर झूठे होने का इल्ज़ाम ना लगे. मुझे जो मिले वो सिर्फ़ मेरे हिस्से का हो उसमे कभी कोई हिस्सेदार ना बने. जो प्यार, अपनापान, विशवास ज़िंदगी मे है वो किसी के तोड़ने से भी ना टूटे. ज़िंदगी कितने ही कठिन इम्तिहान ले, पर मेरे विश्वास को ठोकर ना लगे. लोग मुझ पर कितनी ही अंगुलियाँ उठाए पर मेरा हौसला ना डगमगाए. कोई मुझे कितना ही सताए, दुख दे पर मेरे प्यार का झरना कभी सूख ना पाए.

8 टिप्पणियाँ:

Vikash ने कहा…

आपकी यह पोस्ट पढ़ के बहुत दिनों पहले पढ़ी एक कविता का स्मरण हो आया. अब यह कविता यहाँ प्रासंगिक है कि नहीं, इसकी विवेचना तो साहित्य के महापंडित ही कर सकते हैं. मैं बस यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ. कवियित्री का नाम वक्त ने मेरे भेजे से धो दिया है.

--
बख्शीश की तरह दी हुई
तुम्हारी दो गज जमीन के बद्ले
मैं खोना नहीं चाह्ती अपना पूरा आकाश।
नहीं, मुझे स्वीकार्य नहीं
तुम्हारी शर्तों और वर्जनाओं में बंधा प्रेम अनुबंध।
मेरा अस्तित्त्व विस्तार चाहता है, जंजीरें नही.
मैं जीवन को टुकड़ों टुकड़ों नहीं
जीना चाहती हूँ, पूरे का पूरा एक साथ।
बाँट सकती हूँ मैं तुम्हारे साथ अपना आसमान
मगर, सौंप कर तुम्हे अपने पंख
अपनी उड़ान नही दे सकती
मेरे अन्दर बिल्कुल सांस की तरह
उगती है कविता मुझे बहाती हुई
बहती है मुझमे, प्रेमसरिता
नदी बन पहूंच सकती हूँ मैं तुम तक
मगर पहले तुम्हे सागर होना होगा।
वो पौधा नहीं हूँ जो पकड़ ले अपनी जड़ें
जिस किसी भी मिटटी में
आकाश कुसुम हूँ मैं तो
खिल सकती हूँ तुममे
क्या तुम बनोगे मेरे आकाश?

सुरभि ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
सुरभि ने कहा…

बहुत अजीब बात है मैने भी ये कविता पढ़ी थी कभी अब याद नही. घर जाने और पहली फ़ुरसत मिलते ही मैं अपने पापा की किताबों मे से ढूंढकर आपको इसके रचियता का नाम भी बनाने की कोशिश करूंगी. तुम्हारी पोस्ट की गयी कविता कुछ हद तक प्रासंगिक है अगर पूर्णतया नही है तो भी. हर बात किसी विशिष्ट समय और प्रसंग से जुड़ी होती है और ये प्रसंग व्यक्ति विशेष से संबंधित . पर मैं आभारी हूँ ईस सुंदर कविता के लिए जो मेरा मनोबल बढ़ाने मैं मेरे निर्णय पर अटल रहने मे मददगार साबित हो रही है :)

aarsee ने कहा…

सुरभि जी , आपकी रचनाएँ तो बाँधे रखती हैं पर ये template blake सा काफ़ी चुभता है

सुरभि ने कहा…

i will try to chnage it :)

विजयराज चौहान "गजब" ने कहा…

aapke andar ek kavi hae use marne mat denaa |
विजयराज चौहान (गजब)
http://hindibharat.wordpress.com/
http://e-hindibharat.blogspot.com/
http://groups.google.co.in/group/hindi-bharat?hl=en

बेनामी ने कहा…

मार्मिक और सुन्दर अभिव्यक्ति ..परावाणी भी देखें

vijay kumar sappatti ने कहा…

surbhi ,

bahut der se aapki posts ko padh raha hoon .. aap bahut behtar likhta hai ..
ye post mujhe bahut jyaada prabhaav kar gayi ...

itni acchi rachna ke liye badhai ..............

meri nayi poem padhiyenga ...
http://poemsofvijay.blogspot.com

Regards,

Vijay

 

Template by Suck My Lolly - Background Image by TotallySevere.com