गुरुवार, मई 28, 2009

मन और पतंग

बचपन में अकसर घर की छत पर खड़ी होकर आसमान में हवा के साथ बातें करती पतंगो को घंटों देखती थी. लाल, पीली, नीली हरी सब रंगो की पतंगे. पतंग को कभी ढील देते थे, कभी कसाव, एक दूसरे से बाज़ी मार जाने की चाह मे अपनी जान हथेली पर लिए ख़तरनाक मुंडेर और छतों पर भागते लड़के. पतंग टूटकर गिरती तो भगदड़ मच जाती. पर तब मैने कभी कहाँ पतंग के बारे मे सोचा था और मुझे क्या पता था की एक दिन मेरी डोरी किसी के मिजाज़ के हिसाब से उड़ेगी और मैं भी पतंग बनके आसमान की सैर करूँगी. वो चाहेगा उसे ढील देगा, कसेगा और जो आकाश मेरे उड़ने को तय होगा बस वहीं मेरा सीमा होगी. पर ऐसा हुआ और मैं भी एक दिन टूट कर गिर गयी क्योंकि शायद यही पतंग की नियति है और मन की भी.

5 टिप्पणियाँ:

श्यामल सुमन ने कहा…

जीवन और पतंग की तुलना बिल्कुल खास।
धरा पे गिरते जो कभी वो उड़ते आकाश।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

अजय कुमार झा ने कहा…

priya surbhi jee,
shubh sneh.aapne badee hee gehree aur dard bhari baatein keh dee hain....patang ke bahane se.......yadi theek samjhein to blog templete change karein.....bahut hee gehraa hai...

Udan Tashtari ने कहा…

उम्दा लेखन!!

ACHARYA RAMESH SACHDEVA ने कहा…

SURBHI JI
NAMASKAAR
AAPKE LIKHNE KA ANDAZ H KHAS
MAN AUR PATANG
KAISA H SANG
DO NO UDEY AUR UDTE JAYE
RUK JAYE TO KISI KO NA SUHAYE.
ABHAAR
HO SAKE TO LINK MAIL KARTE RAHE.
HAMARE SCHOOL KE KAAM AAYENGE YE BAATE
RAMESH SACHDEVA
hpsdabwali07@gmail.com

सुरभि ने कहा…

आचार्य जी सर्वप्रथम हॉंसला अफज़ाई के लिए शुक्रिया. और नयी पोस्ट पीने के लिए आप सदस्यता ले लीजिए नये पोस्टिंग आपको मिलते रहेंगे.

 

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