शनिवार, अगस्त 22, 2009

उलझे से रिश्ते

क्यूं सब कुछ सही चलते चलते अचानक से रुक जाता है क्यूं मन की उलझने कभी ख़त्म नही होती. अपने ही नही बल्कि अपने आस पास के लोगों को देखूं तो भी लगता है क्यूं कुछ रिश्ते हम सारी उमर निभाने के लिए अभि-शिप्त होते हैं क्यूं हम चाहकर भी उस बंधनो को तोड़ नही पाते जो हमें क़ैद का अहसास दिलाते हैं हम सारी उमर अपने ख़ून से इन रिश्तों को सीचतें हैं पर कभी ये रिश्ते बढ़कर हमारे माथे की छाँव नही बन पाते, ऐसा क्यूं हैं क्यूं हर क़दम पर परीक्षा देनी पड़ती है एक बार नही बार-बार. अपने विश्वास की, अपने प्यार का सबूत देना पड़ता है दिन का कोई पल तो ऐसा आए जब हम अपने मन की बात बिना किसी डर के सामने रख पाए. क्या कभी कोई उस सच तक उस जगह तक पहुँच पाएगा जहाँ क़दम क़दम पर परीक्षा नही देनी पड़ेगी, प्रतीक्षा नही करनी होगी?

4 टिप्पणियाँ:

Mithilesh dubey ने कहा…

रिश्ते है तो उलझन तो स्वाभाविक है, और रही बात परिक्षा देने की तो हम सभी जानते है जिन्दगी इन्तेहाँ लेती है।

Udan Tashtari ने कहा…

उम्दा और गहन भाव!

Himanshu Pandey ने कहा…

यह स्वाभाविक सी उलझन आती ही है । भावों का सुन्दर प्रकटीकरण । धन्यवाद ।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

काश! ऐसा हो पाता.....
अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...

 

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