शुक्रवार, अक्तूबर 28, 2011

मन की भाषा



आज पिया ने कहा मैं तुम्हे ७२ founts में i love you लिख के भेजूं....पर अजब उलझन में हूँ ये करूँ की ना करूँ ?
तुम्हारे मन तक पहुचे वो शब्द उकेरने की कला मैं भूल सी बैठी हूँ की तुम ही उस लिपि को बाचने की कला खो बैठे हो.
लिपि छोड़ो क्या तुम्हे याद है हमारी अपनी भाषा...कभी बातों में, कभी गीतों में, कभी आँखों में, कभी इशारों में, कभी नज़मों में कभी सड़क किनारे दुकानों पर छपे विज्ञापनों में ...ना कोई शब्द, ना कोई लिपि अब मुझे याद है जो तुम्हारे मन को छु सके...सिर्फ कुछ अहसास हैं...जो बहुत मुश्किल से शब्दों में ढल गए हैं...तुम पढ़ सको तो पढ़ना


बिन कहे मेरी आँखों के भाव
तुम्हारे दिल में उतर जाते थे.
कभी एक शरमाई सी गले मिली शाम
सब बातें कर जाती थी
एक आलिंगन आँगन में झिझका सा
ज़िन्दगी सुकून से भर जाता था
जाते जाते मुड़कर देखने के बहाने
हम कुछ पल साथ फिर जी लेते थे
जाने से ज्यादा उस हिलते हाथ में
फिर आने के वायदे होते थे


एक बार फिर आओ जाना
कौन जाने इस बार हम फिर कोई नयी भाषा तलाशें !!!

1 टिप्पणियाँ:

डॉ.मीनाक्षी स्वामी Meenakshi Swami ने कहा…

"जाते जाते मुड़कर देखने के बहाने
हम कुछ पल साथ फिर जी लेते थे
जाने से ज्यादा उस हिलते हाथ में
फिर आने के वायदे होते थेकौन जाने इस बार हम फिर कोई नयी भाषा तलाशें"

बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति।

दीपावली की मंगकामनाएं।

 

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