शनिवार, सितंबर 23, 2006

राजकुमार की उलझन, सिंडरेला परेशानी

बचपन मैं परी की कहानी सुनती थी, जब कभी सिंद्रेल्ला पढ़ा तब भी लगा ये तो किताबों मैं ही होता है असली ज़िंदगी मैं कहाँ कोई परी कहाँ कोई राजकुमार होता है सब सपनो की दुनिया है पर नही शायद कहीं तो कुछ सच है इसमे कभी-कभी मन कहता है राजकुमार तो सभी को मिलता है शायद, पर सिंद्रेल्ला जैसा मिलता है या नही, मुझे नही पता. मेरी ज़िंदगी मैं वो राजकुमार आएगा या नही और आया तो कैसा होगा मैं ख़ुद नही जानती. एक राजकुमार शायद कहीं है पर उसे नही लगता की मैं वही उसके सपनोवाली राजकुमारी हूँ, उस राजकुमार की ज़िंदगी मैं राजकुमारी आई और चली गयी आज राजकुमार को लगता है अब वोह राजकुमारी नही ढुँडेगा जो उसके घरवाले देखेंगे बस वही होगी. राजकुमार को भी कहीं मैं अच्छी लगती हूँ और शायद थोडा सा प्यार भी है उससे ज़्यादा कुछ भी नही और फिर राजकुमार को उपरवाले का ईशारा नही मिला अभी तक और जब तक ईश्वर वो इशारा नही करेगा राजकुमार भी नही मानेगा. क्यूं राजकुमार नही समझ पा रहा मेरे मन की उलझन, यदि उसने ज़्यादा देर की तो मैं हमेशा के लिए उसकी ज़िंदगी से चली जौंगी. राजकुमार तुम जल्दी से समझो ना अपने मन की बात!

बुधवार, सितंबर 13, 2006

एक शहर जो अजनबी नही है

एक दिन अपने छोटे से शहर से मैं मुंबई पहुच गयी सुनती थी जो यहाँ आता है यहाँ का हो जाता है उसे फिर दुनिया का कोई शहर अच्छा नही लगता है मैं भी जब मुंबई आई यहाँ की भीड़भाड़ में खो गयी थी, कुछ करने सोचने का समय नही मिलता था. फिर भी कभी-कभी ऐसे दिन आते थे जब मेरा दिल यहाँ से भाग जाने को करता था. यहाँ जिन चीज़ों को लोग शिष्टाचार कहते थे मेरे लिए वो नितांत अजनबी थी, यहाँ कोई ऐसा दरवाज़ा नही था जहाँ कोई बिना दस्तक दिए अंदर जा सकता था, कोई चेहरा उतना आत्मियतापूर्ण नही था जिसे देख दिल को सुरक्षित महसूस होता हो, कोई घड़ी ऐसी नही थी जहाँ मैं चिंतामुक्त होकर रहती. इतने लोग, इतनी इमारते, इतनी घूमने की जगह, यहाँ से वहाँ तक फैला समंदर और बाज़ार, फिर भी अपने में ही खोए से लोग. कहाँ मिलेगी मुझे शांति फिर सोचा तो लगा जिसकी खोज मैं यहाँ कर रही हूँ वो खोज शायद उस छोटे शहर में जाकर ही ख़तम होगी जहाँ से मैं आई थी. यदि मुझे अपने काम को जारी रखने के लिए कुछ प्रेरणा चाहिए, सुकून से यहाँ ज़िंदगी जीनी है तो उसके लिए मुझे घर जाना ही होगा. उस शहर मैं शायद रात 9 बजे ही जाती है पर एक घर है जो जीवंतता का अहसास दिलाता है जब कभी उदासी भरे दीनो मैं घर लॉटतती थी उस समय अपने परिवारजनों को ही नही आस पड़ोसियों को भी देखकर मेरा दिल ख़ुश हो जाता है मुह अंधेरे से लेकर गर्मियों की अलसाई दोपहर, दिन छिपे बाद मेरे पड़ोसियों का बिना दरवाज़े पर दस्तक दिए सीधे मेरे कमरे मैं आ जाना जो बुरा लगता था अब मैं उसको तरसने लगी थी. शाम की चाय के वक़्त मुझे याद नही पड़ता की कभी ऐसा हुआ हो की कोई बाहर का साथ ना हो. कितना कुछ था उस वक़्त जिसकी सराहना मैं नही कर पाई. नींद मैं जब मा की चूड़ियों की खनक सुनती थी, लगता था माँ मुझे उठाने आ रही हैं पापा का माँ से पूछना छोटी उठ गयी क्या? सुनते हुए भी मेरा नींद का बहाना करना, जब कभी दीदी मुझे जगाने आती थी मेरे 2 मिनट पूरे ही नही होते थे चाहे उस समय मैं उन दो मिनट के पूरे होने का इंतज़ार ही कर रही होती थी. जब मन ना लगे किसी के भी घर बिना सूचना दिए चले जाना, बाज़ार मैं हमेशा किसी ना किसी परिचित से टकरा जाना, हर जगह कोई अपना होने का अहसास मुझे आज कितना सताता है लोग चाहे कुछ भी कहे पर वो छोटा सा शाहर, जहाँ रात सूरज डूबते ही हो जाती है जहाँ बिना बुलाए मेहमानों का हर पल स्वागत है जहाँ की हर नज़र में अपनेपन का अहसास है मुंबई में जिंदगी जीने के लिए मुझे हर बार वहाँ से कुछ लम्हे, कुछ यादें, कुछ अपनपान और शायद चैन की साँस लेने बार बार वापस जाना ही होता है..

सोमवार, अगस्त 28, 2006

ज़िंदगी की किताब पर उभरते नये पन्ने

ज़िंदगी की किताब पर कुछ नये पन्ने रंगने लगे है कुछ नये से चेहरे आकर लेने लगे है मन मैं नयी उमंगें मचलने लगी हैं ये ख्वाब है या हक़ीकत सपनो की दुनिया सच ना होकर भी जाने क्यूं इतनी क़रीब लगती है लगता है सिर्फ़ एक क़दम का फ़ासला है हाथ करूंगी तो हक़ीकत हो जाएगी. मेरा बात बात पर मुस्कुरा पड़ना, हर पल कोई गीत गुनगुना क्या मेरी ज़िंदगी में किसी के आने की ओर ईशारा करता है ज़िंदगी की किताब मैं जो नयी इबरतें लिखी जा रही है क्या मैं उसे पढ़ सकूंगी? पहली बार मेरा मन किसी के लिए इस तरह बेकाबू हो रहा है जिस और मैं जाना नही चाहती खीचा चला जा रहा है पर फिर भी कहीं कुछ है जो मुझे रोकना चाहता है इस सबसे, मुझे कहता है इतनी रफ़्तार से तो घड़ी के काँटे भी नही बदलते जितनी से तुम उस ओर खीची जा रही हो. उसने ना कुछ कहा-ना कुछ सुना, और कौन जाने उनके मन मैं कुछ है भी या नही, कहीं ये उँची उड़ाने मेरे मन की ही तो नही? अगर है भी तो मेरा मन उड़ना चाहता है पर दिमाग़ कहता है रुक जाओ. दिल और दिमाग़ की इस कशमकश मे, मैं उलझती जा रही हूँ. हर पल फ़ोन की घंटी बजने का इंतज़ार, किसी की चिट्ठि आई है देखने के लिए मेरा बार बार कँपुटर को खोलना क्या मेरे पागलपन का परिचायक नही? क्या करूँ समझ नही आता, ज़िंदगी को यूँ ही चलने दूं या रोक दूं अपने आप.

मंगलवार, अगस्त 01, 2006

मुंबई मेरी जान

बचपन से ही tv पर अख़बारों मैं बंबई को देखती थी. उँची-उँची इमारतें, भागती हुई सी ज़िंदगी, ख़ुद में ही खोए हुए लोग. एक ऐसा शहर जहाँ ज़िंदगी कभी नही सोती थी. कभी परियों का शहर कभी सितारों की नगरी. जाने क्या कशे-श थी इसमे जो इसका जादू किसी के दिल से नही जाता था. सपने मैं भी नही सोचा था एक दिन मैं इस शहर मैं पढ़ने आओुंगी. पर जो सपना मैने नही देखा था वो हक़ीकत हो चुका था. कभी ये शहर मुझे अनजान लगता था, कभी भूल भुलैया जैसे, जिसमे मैं अपने आपको गुम पाती थी. ज़िंदगी की रफ़्तार भी इतनी तेज़ की घड़ी के काँटे भी पीछे रह जाए. इतनी भीड़, इतने लोग होने के बाद भी मैं इस शहर मैं अपने आपको तन्हा पाती थी. पैर धीरे-धीरे मैं भी उस भीड़ मैं शामिल होती गई जो लोग इससे प्यार करते थे. अपनी पहचान बनाने को जूझते लोगों मैं अब मैं भी हूँ, उदासी भरे दीनो मैं समंदर की लहरों में खोना भी मैने सीख लिया है चलते जाना ही जीवन का नियम है और यही नियम है मुंबई का भी! और अब मेरी ज़िंदगी का भी.
 

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