शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009

तुम्हारे पसंदीदा डायलोग


तुम जब भी मिलती हो नयी सी लगती हो
ये मेरा भ्रम है की तुम्हारा जादू ?

तुम्हारी आँखे हैं की आइना,
जैसे ही देखो दिल का हाल पता चल जाता है.

अरे कहना था न मुझे तुमने क्यूँ तकलीफ की,
हुज़ूर की खिदमत में नाचीज़ हमेशा हाज़िर है.

तुम हंसती हो तो लगता है
जैसे मंदिर में घंटिया बज रही है.

तुम ऐसे चुप मत बैठा करो
मुझे लगता है सारा जहान नाराज़ है.

तुम भी न इतनी झल्ली क्यूँ हो, देना था न जवाब
अच्छे से एकदम करारा तुम्हारे गुस्से जैसा .

मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

शिक्षा के बदलते प्रतिमान

कॉलेज शिक्षा विभाग में आये मुझे अभी महिना भर ही हुआ है और मैं अपने आपको इस माहौल के अनुकूल नहीं बना पा रही हूँ. महाविद्यालयों में विद्यार्थी पंजीकरण काफी ऊँचा है पर कहीं कक्षा नहीं लगती और कहीं विद्यार्थी नहीं आते. अध्यापक गण भी विद्यार्थियों को पढ़ने की बजे अपने व्यक्तिगत कार्यों में व्यस्त हैं. इन दिनों महाविद्यालयों में रुकने की अवधि पहले की बनिस्पत २ घन्टे घटा कर ५ घंटे कर दी गयी है और साथ ही छठा वेतनमान भी लागू कर दिया गया है. इसके बावजूद शिक्षक महाविद्यालय में रहने से कतराते हैं और जो एक दो घंटा वहां रहते हैं उनमे भी कक्षाएं न के बराबर ले रहे हैं. मैं समझ नहीं पाती शिक्षक जो समाज का भविष्य निर्माता है वही अगर इस प्रकार की प्रक्रियाओं में लिप्त होंगे तो आने वाले समय में क्या होगा. दूसरी और विद्यार्थी है जिन्होंने छात्रवृति पाने के लिए महाविद्यालय में दाखिला तो करवा लिया है, पर कक्षों में आने की फुर्सत नहीं है. महाविद्यालय के विकास को दर्शाने के लिए कंप्यूटर सेंटर, नए नए कोर्से खोल लिए गए हैं, विद्यार्थियों के सर्वांगीन विकास हेतु विभिन्न कार्यकर्म चलाये जा रहे हैं . पर ये सब भी विद्यार्थियों को महाविद्यालय में लाने में सहायक सिद्ध नहीं हो रहे है.

अभी बहुत कुछ है लिखने के लिए पर सुबह उठ कर मुझे महाविद्यालय जाना है और कक्षा भी लेनी है. मैं उम्मीद करती हूँ की मेरे ब्लॉग को पढने वाले पाठक मुझे कुछ प्रोत्साहित करंगे अपने विचारों के साथ ताकि मैं इस विषय में लिखने की कोशिश को बरक़रार रखु.

नोट
मेरी कक्षा के कुछ विद्यार्थी नियमित रूप से आकर मुझे कृतार्थ कर रहे हैं, मैं उनकी आभारी हूँ की मुझे महाविद्यालय में खाली या इधर उधर चाय पीते हुए अपना समय व्यतीत नहीं करना पड़ता :)

रविवार, नवंबर 08, 2009

तुम एक आम का पेड़ जिसकी शीतलता ने हर पल मुझे सहलाया है,
जिसके फलों की मिठास से मेरा सारा जीवन मिठास से भर गया !

मंगलवार, सितंबर 22, 2009

जो नहीं है उसका अफ़सोस करने और दुःख मनाने से अच्छा है की जो है और जो मिल रहा है उसकी ख़ुशी मनाई जाए :)

सोमवार, सितंबर 21, 2009

तेरी नींद के लिए लुटाने पड़े
सपने मेरे ख़ज़ाने से तो सौदा बुरा नहीँ
तेरी आँखों की चमक के लिए लेनी पड़े
रोशनी उधार सूरज से तो भी सौदा बुरा नही
तेरी एक हँसी के लिए थामे रखने पड़े
आँसू अपनी आँखों मे तो भी सौदा बुरा नहीं!

शनिवार, अगस्त 22, 2009

उलझे से रिश्ते

क्यूं सब कुछ सही चलते चलते अचानक से रुक जाता है क्यूं मन की उलझने कभी ख़त्म नही होती. अपने ही नही बल्कि अपने आस पास के लोगों को देखूं तो भी लगता है क्यूं कुछ रिश्ते हम सारी उमर निभाने के लिए अभि-शिप्त होते हैं क्यूं हम चाहकर भी उस बंधनो को तोड़ नही पाते जो हमें क़ैद का अहसास दिलाते हैं हम सारी उमर अपने ख़ून से इन रिश्तों को सीचतें हैं पर कभी ये रिश्ते बढ़कर हमारे माथे की छाँव नही बन पाते, ऐसा क्यूं हैं क्यूं हर क़दम पर परीक्षा देनी पड़ती है एक बार नही बार-बार. अपने विश्वास की, अपने प्यार का सबूत देना पड़ता है दिन का कोई पल तो ऐसा आए जब हम अपने मन की बात बिना किसी डर के सामने रख पाए. क्या कभी कोई उस सच तक उस जगह तक पहुँच पाएगा जहाँ क़दम क़दम पर परीक्षा नही देनी पड़ेगी, प्रतीक्षा नही करनी होगी?

मंगलवार, अगस्त 04, 2009

राखी का स्वयंवर


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


प्रतिद्वन्दिता के चलते हुए आजकल टी वी चेनल्स मे होड़ लगी हुई है की कौन कितने ज़्यादा दर्शकों को अपनी और खीच पाए और टी. आर. पी. चार्ट में उच्च स्थान पाए. ऐसे ही एक ख्याल को ध्यान में रखते हुए राखी का स्वयंवर नाम का धारावाहिक दर्शको के सामने प्रस्तुत किया गया. सीरियल के कुछ एपिसोड मैने भी देखे और देख कर लगा की हमारे आदर्श कितने नीचे गिर चुके हैं की हम इस तरह के धारावाहिक दर्शको के सामने पेश कर रहे हैं मात्र पैसा पाने के उद्देशय से. पूरे धारावाहिक की प्रस्तुति किसी परी कथा के जैसे की गयी और बार बार ये वाक्य भी दोहराया गया की जैसे सीता मैया का स्वयंवर हुआ वैसे ही अब वैसे ही इस युग में राखी का स्वयंवर है. कितनी अजीब बात है हम राखी जैसी लड़की का सीता के साथ तुलना कर रहे हैं. सीता वही स्त्री जिस पर हर स्त्री अभिमान कर सकती है, चाहे कोई युग रहा हो कोई काल. सीता सच्चाई का प्रतीक जिसने किसी संकट , दुख की परिस्थति मे हार नही मानी धेर्य से काम लिया. जिसने अपने आत्म सम्मान के लिए मर्यादा पुरोशोत्तम, सभी के लिए आदरणीय राम के साथ वापस जाने से इनकार कर धरती की गोद मे समाना बेहतर समझा.

एक एक स्वयंवर का उम्मेदवार प्रतियोगिता से बाहर होता गया और राखी को कहते सुना गया की उसको बहुत दुख हो रहा है, दिल टूट रहा है. जब भी ये सब नोटॅंकी मैं देखती मन में सवाल आता राखी मेडम अगर आपका दिल हर प्रत्याशी के जाने से टूट रहा है तो क्या आपका दिल इन सभी दुल्हो पर आ गया है और आप इन सबसे शादी करना चाहती हैं? इतना नाटक, फालतू का भावनात्मक नाटक किस लिए और पीछे से राम का कहना की आप सबका दिल भी राखी के साथ रो रहा है और ऐसा ही कुछ. अरे भाई अगर सब पसंद थे तो कर लेना था ना बहुपति विवाह किसने रोका है, वैसे भी जब आपको किस-किस देवी देवता, नारी की प्रतिनिधि, और भी जाने कैसे कैसे खिताबों से नवाज दिया गया है, सारे देश की, मीडीया की सहानभूति आपके साथ है तो कौन रोकता आपको बहुपति विवाह करने से ? राखी के विवाह के लिए जो सारा टेलीविज़न जगत उठ कर बधाई देने आ पहुचा, कोई रिश्तेदार कोई दोस्त बनकर असल ज़िंदगी में क्या वाकई वो दिल के किसी कोने में इज़्ज़त देते हैं जो ये सब नाटक कर रहे हैं? हल्ला मचता रहा स्वयंवर का और धारावाहिक का अंत कर दिया गया राखी की सगाई पर. क्या राखी और, स्क्रिप्ट लिखने वाले को नही पता था राखी को दूल्हे को समझने का समय चाहिए? दर्शकों को बुद्धू बनाने के लिए हल्दी, मेहंदी जैसी सब रस्मे दिखाई गयी और अंत विवाह की जगह सगाई दिखा दी.

कितनी अजीब विडंबना है हमारे समाज की हम एक और अपने घर की लड़कियों को राखी सावंत जैसी बनने से बचाना चाहते हैं और दूसरी और खुद ही ऐसे धारावाहिक देखते हैं और उसके झूठे आँसू देख रोते हैं. टी. वी. जैसा माध्यम जिसे समाज के विकास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए आज पैसे कमाने के लिए दर्शको को ऐसे धारावाहिक परोस रहा है. मीडीया वाले जो समाज में जागरूकता लाने की भूमिका निभाते है आज अपनी उँची कमाई के लिए जनता के सामने ऐसे धारावाहिकों की अप टू डेट, कवर स्टोरी लेकर हाज़िर रहते हैं. ऐसे में ज़िम्मेदारी किसकी बनती है, अब हम सबको ही तय करना .

एक बार तो मेरा भी दिल किया की क्यूँ मैं राखी जैसी लड़की के बारे में लिख अपना समय बर्बाद कर रही हूँ पर फिर मुझे लगा यदि सब कुछ देखने समझने के बाद भी शुरुआत हम नही करेंगे तो कौन करेगा. सिर्फ़ किसी की आलोचना करने से, कुढने से कुछ नही होगा बल्कि ज़रूरी है की ये बात और लोगो तक पहुचे ताकि अपने अच्छे और भले दोनो का चुनाव हम स्वयं कर पाए ना की कोई और.

बुधवार, जुलाई 29, 2009

फ़ुर्सत के पल, भूली बातों के नाम

कभी तो हम फिर से बैठकर फ़ुर्सत मे बातें करे. जब तुम ये ना कहो फटाफट बोलो क्या बात है, ना मैं कहूँ जल्दी बोलो कॉलेज जाना है. बस बातें शुरू हो और बिना किसी अवरोध के एक बात दूसरी का सिरा पकड़े और ये सिलसिला चलता चले. कभी चाय की चुस्कियों के साथ तो कभी पेप्सी के केन के साथ. तुम शुरू तो करो अपने ऑफीस से पर खोते जाओ अपने कॉलेज, स्कूल की बातों मे. तुम बयान करो अपने मॅनेजर के खड़ूसपने को और मैं भी देखने लगूँ उसमे अपने पीएचडी के सूपरवाइज़र को. जब करेंगे बातें हम अपने सहकर्मियों की तो कहीं से निकल ही आएँगे कुछ भूले बिसरे यार दोस्त पुरानी तस्वीरों. कभी हम करने लगे बातें अपने स्कूल के मनपसंद टीचर की तो कभी पी टी और फिज़िक्स के उस डरावने टीचर की. कभी याद करे केमिस्ट्री की नाज़ुक सी मेडम की तो कभी गणित के टीचर के डंडे को. कभी याद करे दीदी की गुल्लक से चुराए 1रूपीए को तो कभी स्कूल के लंच पीरियड मे बचाए पैसो से खरीदे जन्मदिन के तोह्फो की. गुब्बारेवाले की आवाज़ नही सुनती अब यहाँ कभी शोक मनाए इस बात का तो कभी मुस्कुराए भरी दुपहरी में आइस्क्रीम वाले की घंटी सुन नंगे पैर दौड़ कर आइस्क्रीम लाने को याद कर. मिलकर तय करें मंदिर में दोनो वक़्त की आरती मे जाके प्रसाद पाने की खुशी ज़्यादा थी या उसके आँगन मे खेलने की. बस कहें हम अपने अपने दिल की, ना ज़्यादा दिमाग़ लगाए ना परखने बैठे कुछ भी.

सोमवार, जुलाई 20, 2009

तुम एक दुनिया खूबसूरत सी

तुम्हे देखती हूँ तो लगता है सारी दुनिया मेरे पास सिमट आई है, हर ओर कोयले जीवन का मधुर संगीत सुना रही है. ज़िंदगी के जो अंधेरे कोने शेष है वहाँ जुग्नुओ की रोशनी बिखर गयी है, तपते हुए रेगिस्तान मे बालू के कणओ पर बारिश की बूंदे मोती जैसे गिर रही है, जाड़ो की सुबह मे ठिठुरती धरती को सूरज की गरमाहट का साथ मिल गया हो. हर इंसान खुशी मे वैसे ही नाच रहा है जैसा मयूर बारिश मे मन्त्र मुग्ध हो नाचता है. तुम्हारे साथ देखी एक सुबह का उजाला आजीवन की रोशनी भर गया, जिस केक्टस को बरसों से फूल खिलने का इंतज़ार था आज वो भी गुलाबी सफेद नाज़ुक फूल को कांटो के बीच खिला देख इतरा रहा है. जब तुम साथ होते हो तो मैं उतना ही आश्वस्त महसूस करती हूँ जितना एक बच्चा अपनी माँ की गोद मे महसूस करता है या पिता की अंगुली थामे.

रविवार, जुलाई 19, 2009

दिल ढूंढता है फिर वही...

लंदन मे रहकर मुझे कई बार अपने देश की बहुत याद आती है. और वो भी ख़ासकर बारिश के दिनो में. यहाँ पहले ही ठंड होती है उपर से ठंडी हवा और बारिश. चलिए बारिश तो बहुत सुहाना और लुभावना मौसम हैं मुझे याद है जब मैं घर पर या हॉस्टिल मे रहती थी बारिश होते ही हम लोग बाहर भीगने को निकल जाते थे. सड़क के किनारे मिलने वाली चाय, गरमागरम पकोडे (भजिया) खाते. कई बार स्कूल, कॉलेज से आते वक़्त साइकल पर भुट्टा खाते हुए घर लौटते थे. हिन्दुस्तान मे कहीं भी सड़क के पास चाय और पकोडे की थडी मिल जाती है और आप आराम से चाय की चुस्कियाँ लेते हुए बारिश की फुहारों का आनंद उठा सकते हैं. पर यहाँ ना तो चाय की दुकान है ना ही वो मज़ा. अगर आपको चाय चाहिए तो स्टारबक्स, कोस्टा-कॉफी जैसी दुकानो मे जाइए और काली चाय पी लीजिए, और अगर आपको दूध वाली चाय पीनी है तो अलग से मिला लीजिए. और पहली चुस्की लेते ही मन करता है बस हो गया चलो यहाँ से. एक अच्छी चाय या कॉफी पीने की चाह मे मैने 30-40 बार अलग अलग दुकानो को आजमाया पर कहीं भी अच्छी तो दूर ठीक चाय-कॉफी तक नही मिली. जब घर पर थे माँ बारिश मे कुछ गरमागरम बना कर खिलाती थी तो सब साथ बैठकर मज़ा करते थे पर यहाँ घर आकर अकेले अपने लिए ना तो कुछ बनाने का मन करता है ना ही कोई साथ में बारिश देखने वाला ही होता है. भले ही यहाँ आप बारिश मे कीचड़ मे गंदे ना हो पर जो मज़ा हिन्दुस्तान मे बारिश मे सड़क के गड्ढो मे छप छप कर चलने मे है, पूरे कपड़े गंदे करके आने में, सड़क किनारे चाय पीने, भुट्टा या भजिया खाने में, घरवालो या दोस्तो के साथ बारिश में भीगने मे, गाने गाने में वो कहीं नही है.

शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

एक गलती सज़ा उमर भर की

चीन सरकार की नीति के अनुसार एक परिवार एक बच्चे का नारा है जो की वहाँ हो रही जनसख्या वृद्धि को रोकने का एक उपाय है. उपाय तक तो बात सही थी पर हाल ही में एक खबर के अनुसार जिन माता-पिता के एक से अधिक बच्चे हैं उन्हे जुर्माना भरना पड़ता है. माता-पिता को बच्चे के पैदा होने से 20 दिन से 3 महीने के अंदर एस जुर्माने की राशि भरनी पड़ती है. जो माता-पिता यह जुर्माना नही भर पाते हैं उनके बच्चो को संरक्षण में ले लिया जाता है. इन बच्चो को अनाथालय में रखा जाता है और वहाँ से बच्चो को गोद लेने वालों को बेच दिया जाता है. अधिकतर बच्चो को अमेरिका, बेल्जियम जैसे देशों मे गोद लिया जाता है.

उल्लेखनीय बात यह है की जुर्माने की राशि चीन की प्रति व्यक्ति की औसत आय से लगभग दो गुना ज़्यादा है ऐसे में माता-पिता किस तरह से इस ज़ुर्माने को भर पाएँगे? बढ़ती हुई जनसंख्या रोकने के लिए कुछ नियम, क़ानून बनाना सही है पर अगर माता-पिता ऐसे मे एक से अधिक बच्चे को जनम देने की गलती करते है तो सज़ा इन मासूम बच्चों को क्यूँ दी जाए? सरकार और प्रशासन की दृष्टि से वो माता पिता को सज़ा दे रहे हैं क़ानून को तोड़ने के लिए परंतु असली सज़ा बच्चों को मिल रही है. एक बच्चा अपने समाज, परिवार से दूर किसी और के पास रहने जाता है या फिर अपना बचपन अनाथालय मे गुजरने पर मजबूर है. इसकी क्या गारंटी है की जिस देश में बच्चा गोद गया है वहाँ उसे माता-पिता और परिवार का प्यार मिलेगा, उनके साथ कोई अत्याचार, उनका कोई शोषण नही होगा? क्या ऐसे बच्चो का भविष्य अंधकार पूर्ण नही हो जाएगा? क्या ऐसे बच्चो का सामान्य समाजीकरण हो पाएगा? बच्चो को अनाथालय भेजने की बजाय क्या माता-पिता के विरुद्ध कोई कठोर कदम नही उठाया जाना चाहिए?

सोमवार, जून 29, 2009

मैं और मेरा शोध कार्य

पिछले चार दिन कैसे बीते कुछ पता ही नही चला. जबसे रिसर्च का काम शुरू किया है तबसे कुछ ना कुछ होता ही रहता है. रिसर्च का काम करते करते समझ भी नही आ रहा था मैं सही लिख भी रही हूँ या नही. अभी तक की मेरे शोध प्रशिक्षण के हिसाब से मुझे कुछ मूलभूत नियम, क़ानून का अनुसरण करना पड़ता था. पर मेरे गाइड इससे संतुष्ट नही थे. मेरा विषय भी ऐसा है जिसमे ज़्यादा कुछ घूमने, फिरने की स्थिति मे मैं नही रहती हूँ. विमुकत जनजातियों मे देह व्यापार विषय पर जब मैं डाटा एकट्ठा करने गयी तब मुझे बहुत ही दिक्कतें आती थी. लोग बात नही करते थे, ग़लत जवाब बताते थे. सब हमेशा कहते थे मैं किसी से भी दोस्ती कर सकती हूँ क्यूंकी मैं बहुत हँसमुख और बातुनी हूँ बस यही यहाँ काम आया और धीरे धीरे मैने अपनी थीसिस की सामग्री एकत्रित की कंज़र जाति के लोगों से. थीसिस के अध्याय लिखना चल रहा था अचानक से यहाँ के गाइड को लगा की मुझे अपनी सृजनात्मकता का कुछ सबूत देना चाहिए. बस उसी सृजनात्मकता का सबूत जुटाने मे सारा सप्ताह चला गया. और मैने अपनी थीसिस का पहला अध्याय वहाँ से शुरू किया जहा से मैने सबसे पहले एस विषय पर काम करने का सोचा था. और धीरे धीरे आगे बढ़ते हुए एथनोग्राफी के हिसाब से लिखना शुरू किया. देह व्यापार मे जाने से पूर्व एक बालिका को किन संस्कारो से गुज़रना होता है, कैसे उसको देह व्यापार के लिए ट्रेन किया जाता है एस सबको एक नरेटिव के रूप मे लिखना बहुत मुश्किल रहा मेरे लिए. मुश्किल इसलिए क्यूंकी मैं सही दिशा मे लिख पा रही हूँ या नही इसका पूरा पता मुझे नही है. और दूसरे मेरा शोध क्षेत्र हिन्दी भाषी था तो उसको इंग्लीश मे लिखते वक़्त क्या मैं अपने उत्ारदाताओ की भावनाओ का पूरी तरह ख्याल रख पा रही हूँ या नही? वैसे भी मेरा विषय और उससे जुड़ी सब बातें इतनी संवेदनशील हैं की कहा पर कुछ ज़्यादा लिख जाए या ग़लत कह नही सकते. अपने अभी तक के रिसर्च ट्रैनिंग को थोड़ा दूर रख कर लिखना कठिन कार्य है. मैने कोशिश की है पर अभी मैं पूरी तरह आश्वस्त नही हूँ. मेरी दीदी जो अभी अमेरिका मे है वो वहाँ बैठ कर पढ़ती रही और अपने सुझाव भी दिए और अंतत हमने उन पर डिस्कशन कर गाइड को अपना लेख जमा कर दिया. देखते है अब गाइड क्या कहते हैं.

बुधवार, जून 24, 2009

हिन्दी ब्लॉग जगत

हिन्दी ब्लॉग जगत से जबसे मैं रूबरू हुई तबसे मुझे लगा जैसे कोई बड़ा खजाना मेरे हाथ लग गया है. एक ऐसा माध्यम जिससे हर इंसान को अभिवय्क्ति का अधिकार मिल गया है. अब किसी को अपने अंदर उमड़ रहे विचारो, भावों को प्रकट करने से डर नही लगेगा, कोई भी अपने विचारो से दुनिया को अवगत करा सकता है, अब किसी को प्रकाशकों की मिन्न्ते नही करनी पड़ेगी अपनी रचना छापने को और ना ही अपनी रचनाए प्रकाशित करवाने के लिए अब किसी को अपना घर या गहने गिरवी नही रखने पड़ेंगे. जहाँ एक और लेखको के लिए यह जादुई चाभी है वही दूसरी और हिन्दी ब्लॉग जगत मुझ जैसे हज़ारों लोगो की हिन्दी रचनाए पढ़ने की इच्छा को भी पूरी कर रहा है. उत्तर भारत के अलावा कहीं भी हिन्दी पुस्तके मिलना अत्यंत कठिन है, और आज की भाग दौड़ भरी ज़िंदगी मे सबके लिए उन्हे ढूँढना और भी कठिन. ऐसे मे हज़ारों लोगो को हिन्दी भाषा से जोड़े रखने मे ब्लॉग जगत अत्यंत कारगर साबित हुआ है. हार्दिक आभार उन सभी के प्रति जो किसी ना किसी रूप मे इस माध्यम से जुड़े हुए हैं.

मंगलवार, जून 16, 2009

ज़िंदगी की परीक्षा

आज अचानक से पुराने फोटो देखते मन उदासी से भर गया. मेरा एक पुराना क्लासमेट याद आ गया जिसने 12वी मे फेल होने के कारण आत्महत्या कर ली थी. एक बहुत ही हँसमुख लड़का, जिसे देखकर लगता ही नही था उसको पढ़ाई की कोई चिंता है या वो ऐसा कदम उठा सकता है. उसकी मौत के बाद पता चला की उसके माता-पिता बहुत नामी डॉक्टर थे और उनकी यही आस थी की बड़ा होकर बेटा डॉक्टर बने और उनका अस्पताल चलाए. यह लड़का बचपन से ही बहुत लाड़ प्यार मे पला था, एकदम मनमौजी था. पर फेल होने के बाद हुए मानसिक तनाव के कारण उसने आत्महत्या कर ली. जान उस लड़के की गयी पर सामाजिक संवेदना के भागी उसके माता-पिता बने. और अब माँ बाप को भी लग रहा था फेल ही तो हुआ तो उसने ऐसा कदम क्यू उठाया. आज जब बेटा नही रहा तो सब शोक मना रहे हैं पर उसने जिस मानसिक स्थिति मे आत्महत्या जैसा कदम उठाया उसका ज़िम्मेवार कौन है?

हर माँ बाप बच्चे को सिर्फ प्रथम आते देखना चाहते ही और बच्चों को बचपन से ही ताकीद किया जाने लगता है की उसको हर हालत में प्रथम आना है. ऐसे में बच्चे जब फेल होते हैं या कम नंबर आते हैं तो माँ बाप एवं समाज से मिलने वाले तिरस्कार झिड़की के डर से उल्टे सीधे कदम उठा बैठते हैं. बच्चे के ऊपर दवाबों के चलते बच्चे गलत राह पर जाते हैं ,कम सोकर पढने में लगे रह अपना स्वास्थ्य खराब करते हैं. और अगर इस सबके बावजूद अच्छे अंक ना आए, अच्छी जगह दाखिला ना हो या बच्चे फेल हो तो उन पर गुस्से की गाज़ गिरती है. और वही पल होता है जब बच्चा अपने आपको बहुत अकेला पता है और इस तनाव के चलते अपनी ज़िंदगी ही ख़त्म करने का फेसला ले लेता है.

शिक्षा का काम इंसान को जीवन जीने का सलीका सीखना है ना की ज़िंदगी से ही हार जाना. मेरे विचार में बच्चो की इस हालत का जिम्मेदार सिर्फ माता पिता न होकर हमारा समाज, आज की शिक्षा पद्विती हैं. जहाँ नम्बर पाने के गुर सीखाये जाते हैं और जो बच्चा पढाई में अच्छा हो उनका सम्मान सबसे ज्यादा होता हैं. कम नम्बर आने पर न केवल माता पिता बल्कि शिक्षकों द्वारा भी दंड दिया जाता हैं ऐसे में अगर बच्चे आत्महत्या जैसे कदम उठाये तो इस सबका ज़िम्मेवार कौन है? वो बालक जिसने अपनी ज़िंदगी ख़त्म कर ली, उसके माता पिता या फिर आप मैं और हम जैसों से मिलकर बना समाज?

आज दुनिया में इतने नए नए व्यवसाय आ गए हैं, की माँ बाप को बच्चे के अंको की चिंता छोड़ उसके सर्वांगीण विकास की और ध्यान देना चाहिए. आज सभी को समझने की जरुरत है की बच्चे की योग्यता उसके लाये नंबर नहीं बल्कि उसका एक काबिल, जिम्मेदार इंसान बनने से है. बच्चो को उनकी इच्छा अनुसार विषय लेने देने चाहिए और व्यवसाय का चुनाव भी उन पर छोड़ देना चाहिए. हर माता पिता के बच्चो से उम्मीद होती है सपने होते हैं पर बच्चो के सपनो को पूरा करने का काम भी उनकी का है. क्यूँ उनकी आँखो के अधूरे सपने, उनके बच्चो को अपने सपने अधूरे छोड़ पूरे करने पड़े?

रविवार, जून 14, 2009

पालिका बाज़ार की एक शाम

दिल्ली के पालिका बाज़ार का नाम बहुत सुना था पर कभी जाने का पहले मौका नही मिला था. किसी से भी कहो कोई लेकर ही नही जाता था और फिर हम दिल्ली जाते भी 2-3 दिन को थे. बाहर से हमेशा देखा पर कभी अंदर जाने का मौका नही मिला. फिर एक दिन मैं और प्रियंका दोनो मुंबई से दिल्ली आ गये. मैने जेएनयू में दाखिला ले लिया था और उधर प्रियंका को NACO में नौकरी मिल गयी. प्रियंका का ऑफीस जनपथ पर था. एक दिन मैं पहुच गयी उससे मिलने जनपथ. हम दोनो इधर उधर घूम रहे थे अचानक हमे पालिका बाज़ार दिखाई दिया. हम दोनो एक दूसरे को देख कर मुस्कुराए थोड़ी देर इधर उधर घूमे और फिर चल दिए अंदर. सीढ़ियों से नीचे उतरे गोल गोल चक्करो में दुकाने और हम और प्रियंका दोनो उस भूल भुलैया में खोने लगे. उस वक़्त शाम के 6 बज गये तो और अधिकतर दुकाने बंद थी. हाँ सीडी की दुकाने ज़रूर खुली थी और सब दुकानदार ग्राहको को आवाज़ लगा लगा के बुला रहे थे. हमें देखा तो मेडम सीडी ले लो सीडी ले लो. पहले तो हमने सोचा छोड़ो फिर लगा चलो ट्राइ करे. सीडी देखना शुरू किया तो आधा घंटा कब बीता पता नही चला. जिन पुरानी हिन्दी और इंग्लीश मूवीस की सीडी कहीं नही मिलती थी वो भी वहाँ उपलब्ध थी और वो भी ओरिजिनल. हमने खूब सुन रखा था यहाँ बारगिनिंग बहुत होती है तो हमने भी दुकांदार से मोल भाव किया. प्रियंका ने दुकानदार का कार्ड भी लिया की कुछ गड़बड़ हुआ तो हम वापस आएँगे लौटने. इतनी डिसकाउनटेड सीडी पाकर हम बहुत खुश. अब जब बाहर निकलने का रास्ता ढूँढा तो कुछ समझ ना आए सब जगह एक जैसे जीने, दुकाने कहा से बाहर जाए. किसी तरह 15 मिनिट मे हम बाहर निकले. मैं जब घर पहुँची और सीडी दिखा के कहा देखो हम कितनी सस्ती ओरिजिनल सीडी लाए हैं. दादा ने सीडी हमारे हाथ से ली और बोले पालिका गयी थी क्या बेटा. हमने कहा हाँ वही से लाए. दादा हँसे और बोले बुद्धू दुनिया की कौनसी चीज़ है जिसकी ड्यूप्लिकेट पालिका में नही मिलती. अब अगर चल जाए तो अच्छा है वरना कोई नही. हमने सीडी का कवर खोला तो देखा अंदर एक सोनी की ब्लॅंक दिखने वाली सीडी थी. डरते डरते हमने सीडी, प्लेयर मे डाली. सीडी का प्रिंट एकदम ओरिजिनल था पर पाइरेटेड. अब हम जैसे नागरिक भी पाइरेटेड सीडी ख़रीदेंगे तो काम कैसे चलेगा और हमने मन ही मन में तय किया अब पालिका की गलियों मे ना रखेंगे कदम :)

बुधवार, जून 10, 2009

जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा

ओफ्फो जब देखो तुम खाना ही बनाती रहती हो, कुछ और भी आता है की नहीं? हम्म इतने प्यार से तुम्हारे आने से पहले तुम्हारे लिए खाना तैयार रखा ताकि आने के बाद मैं काम में न जुटी रहूँ और तब भी तुम खुश नहीं. पतिदेव बताइए मैं क्या करूँ? अरे भाई कुछ और करो, बाहर जाओ कुछ सीखो, कोई नौकरी करो इतनी पढ़ी लिखी हो क्या चूल्‍हे चोके में ज़िंदगी झोक रही हो. अब वो तो हो नही सकता , आपको याद है आपकी शादी के वक़्त इश्तहार दिया था चाहिए " एक सुंदर, सुशील, उच्च शिक्षा प्राप्त घरेलू, गृहकार्यों में दक्ष कन्या". और जब आप मुझसे मिलने पहली बार आए थे और मैने कहा था क्या वाकई आपको घरेलू कन्या चाहिए और आपने कितना इठला कर कहा था " हाँ भाई हमे तो ऐसी लड़की चाहिए जो बहुत पढ़ी लिखी हो ताकि मेरे आनेवाली संतति को अच्छे से पढ़ा लिखा सके और हर समय का खाना अपने हाथ से बना मुझे खिलाए". उस समय मैने आपको समझाने की कोशिश भी की थी पर आपने मुझसे वायदा लिया था की मैं कभी नौकरी नही करूँगी, हमेशा घर ही संभालूंगी. आप अपना वायदा भूल सकते हैं पर मैं..........कभी नही. जाते जाते गुलज़ार साहेब की पंक्तिया याद आ जाती है "वक़्त रहता नही कभी एक सा, इसकी फ़ितरत भी आदमी सी है"

सोमवार, जून 08, 2009

यहाँ कचरा फेंकना मना है

इंग्लेंड आने से पहले जब मैं भारत में थी विदेशियों को हमेशा कहते सुनती थी भारतीय बहुत गंदगी मचाते हैं, जहाँ देखो कचरा फैलाते रहते हैं. यहाँ आने से पहले सब बोले अब तुम इंग्लेंड में घूमना एकदम साफ देश में. हमे भी लगा अरे वाह स्वर्ग में पहुच जाएँगे. कहाँ तो भारत में दुनिया से लड़ाई मोल लिए रहते थे,अरे आप यहाँ कचरा मत फेंको, ये मत करो और अब इस किचकिच पिच पिच से छुटकारा. हम भी बहुत उत्साहित थे विमान से उतरे लंदन की ज़मीन पे कदम रखा. हवाई अड्डे से बाहर आने तक तो सब सही था ट्यूब में बैठते ही देखा यहाँ वहाँ शीतल पेय, जूस के खाली डिब्बे घूम रहे हैं जैसे ये यातायात के साधन सिर्फ़ उन्ही के लिए बने हैं. हमने अपने दिल को कहा अरे भाई ग़लती से रह गया होगा रात के 11 बजे हैं सुबह सॉफ होगा. आज यहाँ रहते हुए 10 महीने होने को आए. सड़को पर गंदगी तो छोड़िए ट्यूब, ट्रेन, बस तक में यहाँ वहाँ ना खाली डिब्बे, रेपर्स बल्कि छोटी छोटी हड्डियाँ तक पड़ी रहती हैं जिन्हे देख दिल अजीब सा हो जाता है. भारत में रहते हुए तो हम फिर भी लोगो को टोक देते थे की कचरा सिर्फ़ कचरा पात्र में डाले या घर जाकर फेंके और कई बार लंबे रास्ते मे ट्रेन में खाली थेली लेके चलते थे की सहयात्री इसमे कचरा फेंक दे और हम उतरने से पहले इसको फेंक देंगे और लोग सुनते भी थे चाहे थोड़ी बड़बड़ करे. पर यहाँ तो अगर आप किसी को कुछ कहने की हिमाकत करे तो आपको उल्टा हज़ार सुनने को मिलेगी और बीच रास्ते में ही उतर जाना पड़ेगा. शायद यही फ़र्क है विकसित और विकासशील राष्ट्र में. विकसित राष्ट्र अपना विकास करना बंद कर देते है खुद को महान, पर्फेक्ट समझ कर और विकासशील राष्ट्र अपने को बेहतर बनाने के लिए सुधार पर अमल करते हैं.

शुक्रवार, जून 05, 2009

नाम, सरनेम और समाज : भाग 1

आज अचानक से ही बात चली की लड़कियो को शादी के बाद पति का उपनाम अपने नाम के पीछे लगाना चाहिए. इस बात पर बहस करते करते एसी दिमाग़ में 2 साल पुराना एक किस्सा याद आया जो अंतत अभी एक महीने पहले समाप्त हुआ. मेरा एम. फिल का दीक्षांत समारोह था. मैं बहुत खुश थी आख़िरकार मुझे TISS से डिग्री मिलने वाली है. अचानक फोन आता है आपको रेजिस्ट्रार साहब बुला रहे हैं. मुझे लगा अचानक ये क्या हुआ ऑफीस पहुचती हूँ तो चटर्जी सर पूछते है आपका नाम क्या है? मैं अपना नाम बताती हूँ वो कहते हाँ पर पीछे क्या है? मैने कहा सर बस इतना ही है एक ही नाम आगे पीछे कुछ नही. अरे ऐसा कैसे हो सकता है हमने तो आज तक नही सुना तुम्हारे बाकी डिग्री सर्टिफिकेट में क्या नाम है? सर वही जो आपको बताया. पर दीक्षांत समारोह के लिए उपनाम भी होना चाहिए ऐसे नही चलेगा. किसी तरह मैं उन्हे समझाती हूँ मुझे सुरभि ही चाहिए और कुछ नही और आप यही नाम रखिए. दीक्षांत समारोह का दिन आता है जब मेरा नाम डिग्री लेने के लिए तो सही बुलाया जाता है पर वार्षिक रिपोर्ट देखते ही मेरा दिमाग़ घूम जाता है. सिर्फ़ 3 लोगो का नाम एम.फिल डिग्री के लिए और मेरा नाम कहीं नही पर कोई सुरभि तिवारी है जिसे डिग्री मिली है. मेरे दोस्त पता करते हैं तो पता चलता है मेरा नाम ही सुरभि की जगह सुरभि तिवारी छापा है. इस नाम से मेरा दूर दूर तक सरोकार नही. अगले दिन मैं रेजिस्ट्रार ऑफीस जाती हूँ और पूछती हूँ मेरा नाम सुरभि तिवारी कैसे छपा मैं खुद आकर आपको बता कर गयी थी. रेजिस्ट्रार साहब बहुत आश्चर्य प्रकट करते है और कहते हैं ये बहुत बड़ी ग़लती है माफीनामे के साथ एक सही प्रति आपके घर पहुच जाएगी. इस बात को 2 साल बीत गये पर कुछ नही हुआ. इस सालों में जितनी बार मैने ऑनलाइन वार्षिक रिपोर्ट देखी दुख हुआ. दुख मेरा नाम ग़लत छापने से ज़्यादा इस बात का था की क्यूँ मेरा नाम बिना उपनाम के नही छापा जा सकता है. किसी ऐसी वैसी जगह नही बल्कि में हो रहा है जहाँ सामाजिक समानता, नारी सशक्तिकरण जैसी बातें की जाती है. समझ नही आ रहा मैं क्या करू क्यूंकी रेजिस्ट्रार ने कुछ किया नही और किसी को मेल करूँ तो कैसा लगेगा. अंतत 2 साल बाद एक दिन सोने से पहले मैने अपना हृदय मजबूत कर, बिना अवमानना की परवाह किए रेजिस्ट्रार साहब को एक चिट्ठी लिखी और डाइरेक्टर साहब को भी उसकी एक प्रति भेजी. सुबह मैं उठ कर अपना मेल बॉक्स झिझकते हुए खोलती हूँ और डाइरेक्टर का मेल दिखता है और एक दूसरा मेल भी. डाइरेक्टर साहब ने मुद्रण विभाग को वार्षिक रिपोर्ट में मेरा नाम सही कर छापने के आदेश दिए थे. दूसरी मेल में वार्षिक रिपोर्ट की सही की गयी प्रति थी जहाँ मेरा नाम सुरभि तो नही हाँ पर मेरे पिता के नाम के साथ सुरभि दयाल लिखा गया.

सोमवार, जून 01, 2009

अलविदा कहती ज़िंदगी

आज जब मैने तुम्हे जाते हुए देखा जाने क्यूँ लगा ज़िंदगी मुझसे दूर जा रही है. इस देश में आए मुझे 8.5 महीने हो गये हैं और यही एक रिश्ता है जो यहाँ आने के समय से आज तक मेरे साथ था. मेरी हर खुशी, हर दुख में मेरे साथ. जब कभी मैं परेशान होती थी एक प्यार भरा हाथ मेरे सिर पर आता और मुझे शांत कर देता, जाने कब और कैसे मेरी उलझने सुलझ जाती थी. चाहे रात्रि का कोई पहर हो की दिन का कोई समय एक विश्वास मेरे साथ था की, कोई साथ है मैं इस अजनबी लंदन शहर मे अकेली नही. कोई हर पल मेरे साथ है. पहली बार मैं घर से दूर होने के बावजूद बिना दुखी हुए रह पायी. इस रिश्ते को निभाने की अनिवार्यता ना समाज ने लागू की थी ना परिवार ने. ये रिश्ता अपने मे ही बुना हुआ एक सुंदर रिश्ता है, जिसे हमने खुद से पुष्पित, पल्लवित किया स्नेह, विश्वास अपनेपन से. समय के साथ साथ कब चीज़ें इतनी बदलती गयी की यह रिश्ता मेरे लिए उतना ही ज़रूरी हो गया जितना ज़िंदगी जीने के लिए हवा और पानी की ज़रूरत है. अभी यहाँ मुझे 3.5 महीने और रहना है पर अकेले और यहाँ अब ऐसा कोई घर नही जहाँ मैं जाके अपने घर जैसा महसूस कर सकूँ ना ही कोई ऐसा शख्स जिसके साथ मैं महफूज़ महसूस कर सकूँ. आज तुम्हे जाते देख भी मैं इतनी बेबस हूँ की तुम्हे रोक नही सकती सिर्फ़ जाते हुए देख सकती हूँ. मेरा जन्मदिन है पर फिर भी दिल बहुत उदास है और दिमाग़ परेशान. कुल मिलाकर मेरा मन पूरी तरह अशांत है. आज के दिन ईश्वर से मेरी यही यही प्रार्थना है की ये साथ ज़िंदगी भर का हो, कुछ ऐसा चमत्कार हो की हम फिर साथ हो, ज़िंदगी फिर से मेरी और रुख़ करे. आमीन!

रविवार, मई 31, 2009

दिल और दिमाग़ की कशमकश

कई बार दिल और दिमाग़ की कशमकश मे इतना उलझ जाते है की कुछ समझ ही नही आता क्या करे. सब कहते है दिल को अपने काबू में रखो वरना वो तो कभी ये माँगेगा कभी वो, दिमाग़ से चलो. पर फिर दिल होता ही क्यूँ है? और जब चलना दिमाग़ ही है तो दिल और दिमाग़ एक दिशा में क्यूँ नही चलते? क्यूँ किसी के जाने से मन इतना उदास हो जाता है और दिमाग़ एकदम खाली सा लगता है. ज़िंदगी मे किसी के जाने से एक ख़ालीपन आ जाता पर ये ख़ालीपन इतना नही होना चाहिए की हम ज़िंदगी की खूबसूरती ना देख पाए और बाकी अच्छी बातें हमें अपनी और आकर्षित ना कर पाए. एक दिन ऐसा भी होता है जब लगता था किसी का आपके साथ होना ना होना जीवनमरण का प्रश्न है. वो दिन अगर बीत जाए समझ आता है ये पागलपना था और हम खुद पर हँसते हैं और अगर नाबीते तो ईश्वर ही खैर करें. किसी के होने से ज़िंदगी अगर खूबसूरत है तो उसके दूर जाने पर तो ये हमाराउत्तरदायित्व बनता है की हम ज़िंदगी को खूबसूरत रखे अगर उस समय से ज़्यादा नही तो उतना तो कम से कम. वरना ज़िंदगी में किसी का होना ना होना सब बराबर हो जाएगा और मैं इतनी कमजोर तो नही की जो है उसको भी खो दूं :)

गुरुवार, मई 28, 2009

मन और पतंग

बचपन में अकसर घर की छत पर खड़ी होकर आसमान में हवा के साथ बातें करती पतंगो को घंटों देखती थी. लाल, पीली, नीली हरी सब रंगो की पतंगे. पतंग को कभी ढील देते थे, कभी कसाव, एक दूसरे से बाज़ी मार जाने की चाह मे अपनी जान हथेली पर लिए ख़तरनाक मुंडेर और छतों पर भागते लड़के. पतंग टूटकर गिरती तो भगदड़ मच जाती. पर तब मैने कभी कहाँ पतंग के बारे मे सोचा था और मुझे क्या पता था की एक दिन मेरी डोरी किसी के मिजाज़ के हिसाब से उड़ेगी और मैं भी पतंग बनके आसमान की सैर करूँगी. वो चाहेगा उसे ढील देगा, कसेगा और जो आकाश मेरे उड़ने को तय होगा बस वहीं मेरा सीमा होगी. पर ऐसा हुआ और मैं भी एक दिन टूट कर गिर गयी क्योंकि शायद यही पतंग की नियति है और मन की भी.

शुक्रवार, मई 15, 2009

कुछ खुलासा....

मेरे पिछले पोस्ट पर मैंने सभी की अलग अलग प्रतिक्रिया पढ़ी. इस पोस्ट में मैं कुछ बातें स्पष्ट करना चाहूँगी. सर्वप्रथम मेरा आक्रोश पुरुषों के प्रति नहीं है बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था, उन लोगो के प्रति है जो की स्त्री को प्रताड़ना का अधिकारी मानते है, उन्हें आगे बढ़ने से, आत्मनिर्भर बनाने से, स्वाभिमान से जीने से रोकते हैं. मैं जानती हूँ किसी की भी सोच एक दिन, एक पल का परिणाम नही है. हमारी जो सोशियल कंडीशनिंग है जब वही सही नहीं होती तो मैं किसी पुरुष या स्त्री पर कैसे अभियोग लगा सकती हूँ? बाहर किसी से लड़ना जितना आसन है अपने आपसे लड़ना उतना ही कठिन, सही गलत की पहचान कर पाने की क्षमता का विकास करना अत्यंत मुश्किल है. मेरे विचार में स्त्री को पुरुष की बराबरी पर लाना है या ऐसे सब शब्द ही गलत हैं. और मैं ऐसी किसी बराबरी में विश्वास नहीं रखती, क्योकि मैं विश्वास करती हूँ की हर मनुज को अपनी क्षमताओ का विकास करने, अपनी इच्छा अनुसार जीवन जीने का अधिकार होना चाहिए . उसे अच्छे बनने की और निरंतर अग्रसर होना चाहिए. ऐसे में बराबरी जैसे शब्द विकास को एक जगह पर ले जाकर रोक देंगे. स्त्री और पुरुष दोनो ही ईश्वर की सुन्दरतम रचना है जिनकी एक दूसरे से कोई प्रतियोगिता नही, बराबरी नही. और इसी प्रकार किसी भी प्रकार का शोषण मानवता का हनन है. दोनो को साथ साथ हाथ मिलाते हुए चलना चाहिए ना की बराबरी करते हुए, प्रतिस्पर्धा करते हुए. वर्तमान परिद्रश्य में, और पिछले कुछ वर्षों में नारी शोषण अत्यंत बढ़ गया है जिसके लिए मुझे लगता है नारी को इस शोषण के प्रति आवाज़ उतनी होनी और बदलाव की शुरुआत स्वयं से ही करनी होगी. परिवर्तन एक या दो दिन में नहीं आएगा, यह एक सतत प्रक्रिया है और हम २-३ संतति के बाद उम्मीद कर सकते हैं कुछ ठोस बदलाव की पर इसकी शुरुआत अभी से ही करनी होगी. उम्मीद की किरण रोशन हो चुकी है और सवेरा अब दूर नही.

मंगलवार, मई 12, 2009

हम होंगे कामयाब

जाने कब तक स्त्रियाँ खुद अपनी दुर्दशा पर रोती रहेंगी, कब तक अपने ऊपर होते अत्याचार सहती रहेंगी , हर एक अधिकार मिलने के लिए किसी और के मुँह को ताकते रहेंगे? खुद कुढ़ते रहने का कोई ओचित्य नहीं जब तक हम गलत को गलत कहना शुरू नहीं करेंगे. परिवर्तन एक दो दिन में तो नहीं आएगा, वक़्त लगेगा पर आएगा जरुर. उदाहरण के लिए मुझे याद आया हाल ही में जब मुझे commonwealth scholarship मिली थी हम लोगों से हमारे मूल निवास का पता माँगा गया, शिक्षा विभाग, मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार ने कहा की महिला आवेदनकर्ता अपने परेंट्स के घर का पता दे. आप contact address में अपना कोई दूसरा पता देना चाहे तो दे दीजिये. आप जो पता दे यह आप पर निर्भर करता है पर हम आपको सिर्फ सलाह दे रहे हैं. इसका मुख्य कारण यह था की आज भी ससुराल वाले या पति, पत्नी के पाने पर सरकार द्वारा भेजे गये पत्रों को छुपा देते हैं, फेंक देते है. और नारी काबिल होने के बावजूद उच्च शिक्षा पाने के अधिकार से वंचित रह जाती है. माता पिता के घर पत्र भेजना चाहे गारंटी ना दे की पत्र आवेदनकर्ता को मिलेगा ही पर फिर भी उसकी मिलने की उम्मीद ज़्यादा होती है. और हमारे स्वयं निर्णय करने का चान्स भी ज़्यादा रहेगा. स्थिति में परिवर्तन तो हो रहे हैं परंतु बहुत धीमे, इस रफ़्तार को बढ़ने के लिए हमारी ज़िम्मेदारी बनती है की हम सही ग़लत का निर्णय लेने की क्षमता का विकास करे और साथ ही हर ग़लत को ग़लत कहने और हर ग़लत उठती उंगली, सवालों का जवाब देने की शक्ति अपने भीतर पैदा करे.
 

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