रविवार, मई 31, 2009

दिल और दिमाग़ की कशमकश

कई बार दिल और दिमाग़ की कशमकश मे इतना उलझ जाते है की कुछ समझ ही नही आता क्या करे. सब कहते है दिल को अपने काबू में रखो वरना वो तो कभी ये माँगेगा कभी वो, दिमाग़ से चलो. पर फिर दिल होता ही क्यूँ है? और जब चलना दिमाग़ ही है तो दिल और दिमाग़ एक दिशा में क्यूँ नही चलते? क्यूँ किसी के जाने से मन इतना उदास हो जाता है और दिमाग़ एकदम खाली सा लगता है. ज़िंदगी मे किसी के जाने से एक ख़ालीपन आ जाता पर ये ख़ालीपन इतना नही होना चाहिए की हम ज़िंदगी की खूबसूरती ना देख पाए और बाकी अच्छी बातें हमें अपनी और आकर्षित ना कर पाए. एक दिन ऐसा भी होता है जब लगता था किसी का आपके साथ होना ना होना जीवनमरण का प्रश्न है. वो दिन अगर बीत जाए समझ आता है ये पागलपना था और हम खुद पर हँसते हैं और अगर नाबीते तो ईश्वर ही खैर करें. किसी के होने से ज़िंदगी अगर खूबसूरत है तो उसके दूर जाने पर तो ये हमाराउत्तरदायित्व बनता है की हम ज़िंदगी को खूबसूरत रखे अगर उस समय से ज़्यादा नही तो उतना तो कम से कम. वरना ज़िंदगी में किसी का होना ना होना सब बराबर हो जाएगा और मैं इतनी कमजोर तो नही की जो है उसको भी खो दूं :)

गुरुवार, मई 28, 2009

मन और पतंग

बचपन में अकसर घर की छत पर खड़ी होकर आसमान में हवा के साथ बातें करती पतंगो को घंटों देखती थी. लाल, पीली, नीली हरी सब रंगो की पतंगे. पतंग को कभी ढील देते थे, कभी कसाव, एक दूसरे से बाज़ी मार जाने की चाह मे अपनी जान हथेली पर लिए ख़तरनाक मुंडेर और छतों पर भागते लड़के. पतंग टूटकर गिरती तो भगदड़ मच जाती. पर तब मैने कभी कहाँ पतंग के बारे मे सोचा था और मुझे क्या पता था की एक दिन मेरी डोरी किसी के मिजाज़ के हिसाब से उड़ेगी और मैं भी पतंग बनके आसमान की सैर करूँगी. वो चाहेगा उसे ढील देगा, कसेगा और जो आकाश मेरे उड़ने को तय होगा बस वहीं मेरा सीमा होगी. पर ऐसा हुआ और मैं भी एक दिन टूट कर गिर गयी क्योंकि शायद यही पतंग की नियति है और मन की भी.

शुक्रवार, मई 15, 2009

कुछ खुलासा....

मेरे पिछले पोस्ट पर मैंने सभी की अलग अलग प्रतिक्रिया पढ़ी. इस पोस्ट में मैं कुछ बातें स्पष्ट करना चाहूँगी. सर्वप्रथम मेरा आक्रोश पुरुषों के प्रति नहीं है बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था, उन लोगो के प्रति है जो की स्त्री को प्रताड़ना का अधिकारी मानते है, उन्हें आगे बढ़ने से, आत्मनिर्भर बनाने से, स्वाभिमान से जीने से रोकते हैं. मैं जानती हूँ किसी की भी सोच एक दिन, एक पल का परिणाम नही है. हमारी जो सोशियल कंडीशनिंग है जब वही सही नहीं होती तो मैं किसी पुरुष या स्त्री पर कैसे अभियोग लगा सकती हूँ? बाहर किसी से लड़ना जितना आसन है अपने आपसे लड़ना उतना ही कठिन, सही गलत की पहचान कर पाने की क्षमता का विकास करना अत्यंत मुश्किल है. मेरे विचार में स्त्री को पुरुष की बराबरी पर लाना है या ऐसे सब शब्द ही गलत हैं. और मैं ऐसी किसी बराबरी में विश्वास नहीं रखती, क्योकि मैं विश्वास करती हूँ की हर मनुज को अपनी क्षमताओ का विकास करने, अपनी इच्छा अनुसार जीवन जीने का अधिकार होना चाहिए . उसे अच्छे बनने की और निरंतर अग्रसर होना चाहिए. ऐसे में बराबरी जैसे शब्द विकास को एक जगह पर ले जाकर रोक देंगे. स्त्री और पुरुष दोनो ही ईश्वर की सुन्दरतम रचना है जिनकी एक दूसरे से कोई प्रतियोगिता नही, बराबरी नही. और इसी प्रकार किसी भी प्रकार का शोषण मानवता का हनन है. दोनो को साथ साथ हाथ मिलाते हुए चलना चाहिए ना की बराबरी करते हुए, प्रतिस्पर्धा करते हुए. वर्तमान परिद्रश्य में, और पिछले कुछ वर्षों में नारी शोषण अत्यंत बढ़ गया है जिसके लिए मुझे लगता है नारी को इस शोषण के प्रति आवाज़ उतनी होनी और बदलाव की शुरुआत स्वयं से ही करनी होगी. परिवर्तन एक या दो दिन में नहीं आएगा, यह एक सतत प्रक्रिया है और हम २-३ संतति के बाद उम्मीद कर सकते हैं कुछ ठोस बदलाव की पर इसकी शुरुआत अभी से ही करनी होगी. उम्मीद की किरण रोशन हो चुकी है और सवेरा अब दूर नही.

मंगलवार, मई 12, 2009

हम होंगे कामयाब

जाने कब तक स्त्रियाँ खुद अपनी दुर्दशा पर रोती रहेंगी, कब तक अपने ऊपर होते अत्याचार सहती रहेंगी , हर एक अधिकार मिलने के लिए किसी और के मुँह को ताकते रहेंगे? खुद कुढ़ते रहने का कोई ओचित्य नहीं जब तक हम गलत को गलत कहना शुरू नहीं करेंगे. परिवर्तन एक दो दिन में तो नहीं आएगा, वक़्त लगेगा पर आएगा जरुर. उदाहरण के लिए मुझे याद आया हाल ही में जब मुझे commonwealth scholarship मिली थी हम लोगों से हमारे मूल निवास का पता माँगा गया, शिक्षा विभाग, मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार ने कहा की महिला आवेदनकर्ता अपने परेंट्स के घर का पता दे. आप contact address में अपना कोई दूसरा पता देना चाहे तो दे दीजिये. आप जो पता दे यह आप पर निर्भर करता है पर हम आपको सिर्फ सलाह दे रहे हैं. इसका मुख्य कारण यह था की आज भी ससुराल वाले या पति, पत्नी के पाने पर सरकार द्वारा भेजे गये पत्रों को छुपा देते हैं, फेंक देते है. और नारी काबिल होने के बावजूद उच्च शिक्षा पाने के अधिकार से वंचित रह जाती है. माता पिता के घर पत्र भेजना चाहे गारंटी ना दे की पत्र आवेदनकर्ता को मिलेगा ही पर फिर भी उसकी मिलने की उम्मीद ज़्यादा होती है. और हमारे स्वयं निर्णय करने का चान्स भी ज़्यादा रहेगा. स्थिति में परिवर्तन तो हो रहे हैं परंतु बहुत धीमे, इस रफ़्तार को बढ़ने के लिए हमारी ज़िम्मेदारी बनती है की हम सही ग़लत का निर्णय लेने की क्षमता का विकास करे और साथ ही हर ग़लत को ग़लत कहने और हर ग़लत उठती उंगली, सवालों का जवाब देने की शक्ति अपने भीतर पैदा करे.
 

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