बुधवार, दिसंबर 29, 2010

समाज का संगीत: समाजशास्त्र



जब भी कोई मुझसे पूछता है मैं क्या पढ़ाती हूँ या मैंने किस विषय में पढाई की है और मैं कहती हूँ मैं समाजशास्त्र पढ़ाती हूँ तो अधिकांशत लोगों की यही प्रतिक्रिया होती है ये कौनसा विषय है ? क्या ये भी पढाये जा सकने लायक है, क्या ये वही समाजशास्त्र है जिसे विद्यालय में सामाजिक विज्ञानं कहते थे, और फिर अगली बात ये की कितना नीरस विषय है इसको तो छोटी कक्षा में पढने में ही इतना बोर हो जाता था अब इतने बड़े होकर मैंने इसमें ही इतनी पढाई कर ली, और अब महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में ये पढ़ाती भी हूँ. तो मैं उन्हें तरह तरह से बताती हूँ मैंने क्यूँ ये विषय लिया, इसमें क्या है. तभी से कई दिन से मेरे मन में ख्याल आ रहा था क्यूँ ना मैं अपने ब्लॉग पर भी इस विषय के बारे में अपने विचार लिखू और मुझे कैसा लगता है जब मैं इस को पढ़ती या पढ़ाती हूँ.

समाजशास्त्र समाज का संगीत है. ऐसा संगीत जिसका हर सुर, हर धुन, हर शब्द, हर गीत इंसान ने रचा है. वो संगीत जो सृष्टि की प्रथम नीव का साक्षी है, उसके हर उत्थान, हर पतन की कहानी सुनाता है, सृजन से विश्वंश, न्रशंस से देव बनने की अदभुत गाथाये कहता है. सृष्टि की शुरुआत करने वाले प्रथम जोड़े की रचना से शुरू कर हर अंत और फिर पुनर्जनम की कड़ी से कड़ी जोड़ता है, दुनिया के हर कोने में अलग अलग रंगों के लोगों, बोलियों, लिपियों, नृत्यों, संगीत, संस्कृति की ना केवल जानकारी देता है बल्कि हर एक इंसान को दूसरे से जुड़े होने का अहसास दिलाता है. भारतवर्ष में विभिन्न त्योहर्रों का जश्न हो, की पश्चिम में क्रिसमस के रंग समाजशास्त्र ही है जिसने विश्व की एक संस्कृति को दूसरी संस्कृति से जोड़ दिया है. आज हर देश में एक छोटा दूसरा देश लाकर खड़ा कर दिया है. संगीत जो लोगों के दिल से ना केवल जनमता है बल्कि लोगों के दिलों को जोड़ता है. वैसे ही ये विषय दुनिया के हर कोने के इंसान को एक दूसरे से जोड़ता है. अगर आज कहीं एक समस्या है तो उसकी जड़ तक जाकर कारण का पता लगा उसका निदान करता है बिलकुल वैसे ही जैसे एक साजिंदा शब्दों को धुन प्रदान कर देता है या वाद्य यंत्रों की त्रुटियों को सुधार देता है. जैसे सात सुरों से संगीत बनता है वैसे ही समाज के या कहूँ इंसान के जीवन के हर पहलु से मिलकर समाजशास्त्र बनता है.

जब मैंने ये विषय पढना शुरू किया मुझे भी लगता था क्या होगा इसमें, कई बार अरुचिकर लगा पर जब मैंने उसको जीवन से जोड़कर देखा तो पाया यही तो जीवन का संगीत है वो संगीत जो जिंदगी में मिठास घोल देता है, जो हमें सीखता है की किसी भी मान अभिमान से ऊपर हम इंसान हैं. वो संगीत जो प्यार करना सीखता है और कहता है अपने धर्म, वर्ण, भाषा, पहनावे, खान-पान यहाँ तक की अपने अहम् को छोड़ तुम मेरे पास आओ और देखो हम मिलकर कितना सुन्दर जहान बना सकते हैं, वो जहान जहाँ तुम तुम हो मैं मैं भी फिर भी हम है. वो संगीत जो सीखाता है तुम अपने रंगों को सहेजो मैं अपने रंगों को सहेजूँ, ना तुम कुछ खो ओ ना मैं कुछ बिसारूँ पर हम दोनों मिलकर नए रंगों को जन्म दे....जहान में बिखराए :)

6 टिप्पणियाँ:

शेष ने कहा…

सुरभि जी,
नमस्कार
मैं अरविंद शेष हूं। जनसत्ता में नौकरी करता हूं। इस अखबार के संपादकीय पन्ने पर एक साभार स्तंभ "समांतर" प्रकाशित होता है। इसमें इंटरनेट पर शाया अच्छी सामग्रियों के अंश लेखक के नाम और ब्लॉग के पते के साथ छापी जाती हैं। अगर आपकी इजाजत हो तो हम आपके ब्लॉग पर प्रकाशित "समाज का संगीत- समाजशास्त्र...' इस स्तंभ के लिए लेना चाहते हैं।
अगर संभव हो तो कृपया इस arvindshesh@gmail.com पते पर सूचित कर दें।
शुक्रिया...
उम्मीद है, जवाब देंगे...

deo prakash choudhary ने कहा…

अच्छा लिखा है आपने। धन्यवाद
-देव प्रकाश
http://www.firkabhi.blogspot.com/


http://deoprakash.blogspot.com/
http://www.artstroke2010.blogspot.com/

डॉ.मीनाक्षी स्वामी Meenakshi Swami ने कहा…

आपके ब्लाग से अपनापन लगा क्योंकि मैं भी समाजशास्ञ प़ढाती हूं और ऐसे सवालों से जूझती हूं । आपका सोच सार्थक है । जीवन से जोड़कर देखने पर मैनें भी संगीत सुना । इस संगीत की ओर ले जाने के लिये आभार ।

डॉ.मीनाक्षी स्वामी Meenakshi Swami ने कहा…

आपके ब्लाग से अपनापन लगा क्योंकि मैं भी समाजशास्ञ प़ढाती हूं और ऐसे सवालों से जूझती हूं । आपका सोच सार्थक है । जीवन से जोड़कर देखने पर मैनें भी संगीत सुना । इस संगीत की ओर ले जाने के लिये आभार ।

सुरभि ने कहा…

डॉ मीनाक्षी आपका हार्दिक आभार. आप जैसे लोग ही जीवन में कुछ नया करने ,लिखने की प्रेरणा देते है. आपका प्रोत्साहन एवं आशीर्वाद हमेशा मिलता रहेगा ऐसी उम्मीद है.

sanskriti ने कहा…

जनसत्ता में आपका लेख पढ़ा. उत्कर्षत श्रेणी का समाजशास्त्र और भाषा का समायोजन मिला.

 

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