आज एकाएक फिर सीखा कि प्यार की प्रक्रिया कभी स्थिर नहीं होती या तो वह विकसित होती चलती है या निगति की और बढती है. हम सोचते हैं 'अलग हो गए', 'भूल गए', प्यार 'मर' गया, 'अब कुछ नहीं 'बचा', या की 'भूला दिया', इसलिए 'क्षमा' हो गयी. पर वास्तव में यह होता नहीं. 'भूलना' है ही नहीं. याद दब जाती है तो भी क्रियाशील रहती है.
अभी इधर कुछ नया कुछ भी घटा नहीं है, पर आज मन एकाएक इतना अजीब हो आया की मैं अचकचा गयी ; पहचाना कि एक अमर्ष भरा विरोध भाव मन में है ( द्वेष, नफरत, गुस्सा शायद इस अहसास के लिए सही शब्द नहीं है ) 'हुआ' केवल ; इतना की दूर राह चलते की पीठ देखी और क्षण भर को लगा की वह है, और एकाएक विरोध का भाव उमड़ आया.
रविवार, जनवरी 17, 2010
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