प्रकृति की तरह बसंत, शीत, वर्षा और गर्मी के अनुरूप अपने आप को बदल लो ....न दर्द उठेगा, न कसक. हमारा मन एक जीवित नदी है...ऊपर से सूखी रेत और भीतर से कभी न सूखने वाला निर्झर. शायद यहीं से इंसान को जीने का रस मिलता है.
मिट न सकी लिपि
15 घंटे पहले
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