रविवार, मार्च 21, 2010


प्रकृति की तरह बसंत, शीत, वर्षा और गर्मी के अनुरूप अपने आप को बदल लो ....न दर्द उठेगा, न कसक. हमारा मन एक जीवित नदी है...ऊपर से सूखी रेत और भीतर से कभी न सूखने वाला निर्झर. शायद यहीं से इंसान को जीने का रस मिलता है.

5 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari ने कहा…

हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.

सुरभि ने कहा…

शुक्रिया समीर जी आजकल रोज ५ चिट्ठों पर टिपण्णी कर रही हूँ...कोशिश करुँगी की और ज्यादा करूँ. आपके होंसले अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया :)

eindiawebguru ने कहा…

सच बहुत आनंद मिला आपके चिट्ठे पर!


ब्लॉग पर गूगल बज़ बटन लगायें, सबसे दोस्ती बढ़ायें

Manish Kumar ने कहा…

बहुत सुंदर पंक्तियाँ लिखी हैं सुरभि मन को छू गयी।

दिलीप ने कहा…

bahut khoob Surbhi ji...

 

Template by Suck My Lolly - Background Image by TotallySevere.com