मंगलवार, अगस्त 01, 2006

मुंबई मेरी जान

बचपन से ही tv पर अख़बारों मैं बंबई को देखती थी. उँची-उँची इमारतें, भागती हुई सी ज़िंदगी, ख़ुद में ही खोए हुए लोग. एक ऐसा शहर जहाँ ज़िंदगी कभी नही सोती थी. कभी परियों का शहर कभी सितारों की नगरी. जाने क्या कशे-श थी इसमे जो इसका जादू किसी के दिल से नही जाता था. सपने मैं भी नही सोचा था एक दिन मैं इस शहर मैं पढ़ने आओुंगी. पर जो सपना मैने नही देखा था वो हक़ीकत हो चुका था. कभी ये शहर मुझे अनजान लगता था, कभी भूल भुलैया जैसे, जिसमे मैं अपने आपको गुम पाती थी. ज़िंदगी की रफ़्तार भी इतनी तेज़ की घड़ी के काँटे भी पीछे रह जाए. इतनी भीड़, इतने लोग होने के बाद भी मैं इस शहर मैं अपने आपको तन्हा पाती थी. पैर धीरे-धीरे मैं भी उस भीड़ मैं शामिल होती गई जो लोग इससे प्यार करते थे. अपनी पहचान बनाने को जूझते लोगों मैं अब मैं भी हूँ, उदासी भरे दीनो मैं समंदर की लहरों में खोना भी मैने सीख लिया है चलते जाना ही जीवन का नियम है और यही नियम है मुंबई का भी! और अब मेरी ज़िंदगी का भी.

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