शनिवार, नवंबर 14, 2020

कुछ यादें इश्क की गलियों से

क्या अब भी कोई आता है तुमसे मिलने ऑफिस से आते वक़्त, क्या ट्रेन में बैठते वक़्त अब भी क्या तुम्हे मेरे आने का इंतज़ार रहता है क्या कभी तुम भूल जाते हो कि अब मैं उस शहर में नहीं हूँ और तुम्हे रहती है जल्दी घर पहुचने की, क्या अब भी तुम घर पहुच कर खोल कर बैठ जाते हो लैपटॉप और चलता है शायरी, अंतराक्षी और बातों का दौर, क्या अब भी तुम्हे हर पल मिलते है कुछ sms और missed कॉल सर्दी कि रातों में हाथों में हाथ डाले सड़क पर घूमते लोगों को देख मेरी याद आती है? क्या अब भी तुम्हे डर रहता है वक़्त बेवक्त किसी के घर आने का, क्या अब भी अँधेरी रातों में बिस्तर पर तुम्हारे हाथ मुझे ढूंढते हैं, क्या अब भी सुबह कि पहली किरण और ऑफिस जाना तुम्हे उतना ही बोझिल लगता है क्या अब भी तुम हर दिन को शुक्रवार और शनिवार में बदलना चाहते हो ताकि तुम्हे ऑफिस न जाना पड़े, जब बरफ कि झड़ी लगी है सारे शहर में क्या कोई तुम्हे अकेला न छोड़ने का प्रण कर तुम्हारे पास आता है क्या अब भी तुम्हे ढूंढने पड़ते है लिपस्टिक के रंग, और चुनना पड़ता है कपड़ो के रंग ? चित्र साभार गूगल

4 टिप्पणियाँ:

आओ बात करें .......! ने कहा…

इश्क की गलियों में...................................
कुसमुसाते यूँ इश्क के रश्क को कुरेदते हैं
कभी इश्क के रिश्तों को सहलाकर तो देखिये
सवालों में वजन है वाकई, जबाब देना दुष्कर है
पर प्रेम के अहसास को सहेजकर तो देखिये.

Mithilesh dubey ने कहा…

अरे वाह इतने सुन्दर एहसास जब हों तो क्या कहंने , बहुत खूब लिखा है आपने ।

M VERMA ने कहा…

बहुत सुन्दर और मासूम से एहसासो को पिरोया है आपने.
बहुत सुन्दर

Udan Tashtari ने कहा…

उफ़्फ़!! जबरदस्त!

 

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