आज एकाएक फिर सीखा कि प्यार की प्रक्रिया कभी स्थिर नहीं होती या तो वह विकसित होती चलती है या निगति की और बढती है. हम सोचते हैं 'अलग हो गए', 'भूल गए', प्यार 'मर' गया, 'अब कुछ नहीं 'बचा', या की 'भूला दिया', इसलिए 'क्षमा' हो गयी. पर वास्तव में यह होता नहीं. 'भूलना' है ही नहीं. याद दब जाती है तो भी क्रियाशील रहती है.
अभी इधर कुछ नया कुछ भी घटा नहीं है, पर आज मन एकाएक इतना अजीब हो आया की मैं अचकचा गयी ; पहचाना कि एक अमर्ष भरा विरोध भाव मन में है ( द्वेष, नफरत, गुस्सा शायद इस अहसास के लिए सही शब्द नहीं है ) 'हुआ' केवल ; इतना की दूर राह चलते की पीठ देखी और क्षण भर को लगा की वह है, और एकाएक विरोध का भाव उमड़ आया.
मूर्खता : एक सात्विक गुण
5 वर्ष पहले
4 टिप्पणियाँ:
ise kya kahu? prem ki paribhasha yaa prem ki peeda,,,?
laghu shbdo se buni gai KADUVAHAT kai saare arth to nikaalti dikhati he.
अमिताभ जी कडवाहट जैसा कुछ नहीं सिर्फ प्रेम करते करते बीच में आई उलझने हैं.जब आप प्यार करते है तब शब्दों में भले ही कडवाहट आ जाये मन में कभी कहीं कोई कडवाहट नहीं आती यही प्रेम का जादू है.
प्यार है तो विरोध कैसा - क्या विरोध से प्यार जीता जा सकता है?
"याद दब जाती है तो भी क्रियाशील रहती है. "
सूक्तिपरक पंक्ति !
आभार ।
एक टिप्पणी भेजें