प्रकृति की तरह बसंत, शीत, वर्षा और गर्मी के अनुरूप अपने आप को बदल लो ....न दर्द उठेगा, न कसक. हमारा मन एक जीवित नदी है...ऊपर से सूखी रेत और भीतर से कभी न सूखने वाला निर्झर. शायद यहीं से इंसान को जीने का रस मिलता है.
मुझे अच्छी लगती हैं वे लड़कियाँ
2 दिन पहले
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5 टिप्पणियाँ:
हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
शुक्रिया समीर जी आजकल रोज ५ चिट्ठों पर टिपण्णी कर रही हूँ...कोशिश करुँगी की और ज्यादा करूँ. आपके होंसले अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया :)
सच बहुत आनंद मिला आपके चिट्ठे पर!
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बहुत सुंदर पंक्तियाँ लिखी हैं सुरभि मन को छू गयी।
bahut khoob Surbhi ji...
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