बुधवार, सितंबर 13, 2006

एक शहर जो अजनबी नही है

एक दिन अपने छोटे से शहर से मैं मुंबई पहुच गयी सुनती थी जो यहाँ आता है यहाँ का हो जाता है उसे फिर दुनिया का कोई शहर अच्छा नही लगता है मैं भी जब मुंबई आई यहाँ की भीड़भाड़ में खो गयी थी, कुछ करने सोचने का समय नही मिलता था. फिर भी कभी-कभी ऐसे दिन आते थे जब मेरा दिल यहाँ से भाग जाने को करता था. यहाँ जिन चीज़ों को लोग शिष्टाचार कहते थे मेरे लिए वो नितांत अजनबी थी, यहाँ कोई ऐसा दरवाज़ा नही था जहाँ कोई बिना दस्तक दिए अंदर जा सकता था, कोई चेहरा उतना आत्मियतापूर्ण नही था जिसे देख दिल को सुरक्षित महसूस होता हो, कोई घड़ी ऐसी नही थी जहाँ मैं चिंतामुक्त होकर रहती. इतने लोग, इतनी इमारते, इतनी घूमने की जगह, यहाँ से वहाँ तक फैला समंदर और बाज़ार, फिर भी अपने में ही खोए से लोग. कहाँ मिलेगी मुझे शांति फिर सोचा तो लगा जिसकी खोज मैं यहाँ कर रही हूँ वो खोज शायद उस छोटे शहर में जाकर ही ख़तम होगी जहाँ से मैं आई थी. यदि मुझे अपने काम को जारी रखने के लिए कुछ प्रेरणा चाहिए, सुकून से यहाँ ज़िंदगी जीनी है तो उसके लिए मुझे घर जाना ही होगा. उस शहर मैं शायद रात 9 बजे ही जाती है पर एक घर है जो जीवंतता का अहसास दिलाता है जब कभी उदासी भरे दीनो मैं घर लॉटतती थी उस समय अपने परिवारजनों को ही नही आस पड़ोसियों को भी देखकर मेरा दिल ख़ुश हो जाता है मुह अंधेरे से लेकर गर्मियों की अलसाई दोपहर, दिन छिपे बाद मेरे पड़ोसियों का बिना दरवाज़े पर दस्तक दिए सीधे मेरे कमरे मैं आ जाना जो बुरा लगता था अब मैं उसको तरसने लगी थी. शाम की चाय के वक़्त मुझे याद नही पड़ता की कभी ऐसा हुआ हो की कोई बाहर का साथ ना हो. कितना कुछ था उस वक़्त जिसकी सराहना मैं नही कर पाई. नींद मैं जब मा की चूड़ियों की खनक सुनती थी, लगता था माँ मुझे उठाने आ रही हैं पापा का माँ से पूछना छोटी उठ गयी क्या? सुनते हुए भी मेरा नींद का बहाना करना, जब कभी दीदी मुझे जगाने आती थी मेरे 2 मिनट पूरे ही नही होते थे चाहे उस समय मैं उन दो मिनट के पूरे होने का इंतज़ार ही कर रही होती थी. जब मन ना लगे किसी के भी घर बिना सूचना दिए चले जाना, बाज़ार मैं हमेशा किसी ना किसी परिचित से टकरा जाना, हर जगह कोई अपना होने का अहसास मुझे आज कितना सताता है लोग चाहे कुछ भी कहे पर वो छोटा सा शाहर, जहाँ रात सूरज डूबते ही हो जाती है जहाँ बिना बुलाए मेहमानों का हर पल स्वागत है जहाँ की हर नज़र में अपनेपन का अहसास है मुंबई में जिंदगी जीने के लिए मुझे हर बार वहाँ से कुछ लम्हे, कुछ यादें, कुछ अपनपान और शायद चैन की साँस लेने बार बार वापस जाना ही होता है..

4 टिप्पणियाँ:

Manish Kumar ने कहा…

apne se bichadkar unka sahi mol pata chalta hai.

बेनामी ने कहा…

सुरभि , आज ये हर उस व्यक्ति कि विडम्बना है, जो पहचान बनाने के लिये अपने छोटे शहरों को छोड्कर महानगरों में अपने अस्तित्व की पह्चान के लिये भटक रहा ह|

खैर इतना ही कहुँगा, कि ज़िन्दगी सिर्फ सफलता के नये नये आयाम छूना भर ही नही है, बल्कि उन आयामों को आकार देने कि बलिवेदी चढ गये सपनों को भी ज़िन्दगी कहते हैं |
हो सके तो इन बिखरे सपनो को सहेज के रखना , क्योंकी एक दिन यही सपने तुम्हें वापस लौटने मे मदद करेंगे |

दर्शन ने कहा…

mujhe nahi pata who you are ...
parantu dhayan se dekha to mahsoos hua tum ,kuch had tak main ho, tum kuch had tak hum sab ho , tum kuch had tak wo har insaan ho jo mumbai jaise bade sahron mein zindagi ki talash mein bhatak rahe hain ...
sach mein kitna sukun hai us chote se sahar k chote se ghar mein ....
kitni aatmiyata hai us ghar mein ....
kya lagta hai ? kya hum laut payenge us dahleez pe phir kabhi ...?
Ishwar hi janta hai .....
lakin samay gawah hai , aaj tak koi nahi lauta ...
phir tum lautogi ya nahi ? main lautunga ya nahi ? hum sab lautenge ya nahi ...?
kuch nahi pata .....

सुरभि ने कहा…

darshan jee lautane ke liye ek strong decision aur himmat ki jarurat hai. hume chahe lage hum bahut door nikal gaye hain par ghar wapsi ka raasta hamesha, har mod par khula hi rahta hai

 

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